10 गुण जो संसार से मुक्त करेंगे.
दोस्तों मानव जीवन का लक्ष्य है प्रभु को प्राप्त करना है। हमारे ग्रंथो और संतो ने इसके कई उपाये बताये है। उन सभी युक्तिओं को निष्काम भाव से अपना कर मतलब अपने शरीर सुख की कामना को छोड़ कर ,केवल प्रभु प्राप्ति की इच्छा को मन में रखते हुए जीवन को जिए तो वह इस मानव जन्म को सफल बना सकता है.. श्री मनु महाराज जी ने धरम के दस लक्षण बतलाये है उन दस लक्षणों को धारण करने वाला मनुष्य माया के बंधन से छूट प्रभु को पा सकता है। ..
पहला लक्षण है की किसी प्रकार का संकट आने पर या कोई इच्छा पूरी न होने पर अपने धर्य को न छोड़ना। मतलब मुसीबत में भी कोई ऐसा गलत काम नहीं करना जिससे किसी को कोई नुकसान हो… ऐसे ही इच्छा के विरुद्ध कोई चीज़ मिलने पर वो उसे प्रभु का प्रसाद मान कर दुखी नहीं होना
दूसरा लक्षण है की वो अपने साथ बुराई करने वाले को सजा देने दिलाने की पूरी शक्ति होने के वावजूद भी उसे दंड देने की भावना भी मन में ना लाये। और उस अपराध करने वाले मानव के द्वारा दिए दुःख को अपना प्रारब्ध मान कर काट ले उस अपराधी को क्षमा कर दे।
तीसरा लक्षण है अपने मन को वश में करना। प्रभु ने भी मन की गति को रोकना एक कठिन कार्य बताया है पर साथ में यह कहा है की यह असंभव नहीं है इसे वैराग्य और अभ्यास से वश में किया जा सकता है.
चौथा लक्षण है मन ,वाणी, शरीर से किसी प्रकार की चोरी न करना। शरीर के द्वारा की चोरी को तो हम ठीक से समझते है पर मन और वाणी की चोरी का अर्थ है भीतर से किसी के बारे कुछ और सोचना और वाणी से कुछ और कहना। इस अपराध से प्रभु की और चलने वाला भक्त हमेशा बचने का कोशिश करता है।
पांचवा लक्षण है भीतर और बहार की शुद्धता। बहार की शुद्धता का अर्थ है शारीरक पवितरता ठीक से शौच आदि का ध्यान रखना और आहार की पवित्रता। भीतर की पवितरता का मतलब है छल कपट, राग द्वेष और वैर अभिमान से दूर रहना।
छठा लक्षण है अपनी इन्द्रियों को रूप रस गंध शबद सपर्श के होने वाले सुख के अनुसार ना चला कर धर्म के अनुसार चलाना.
सातवा लक्षण है श्रेष्ट बुद्धि जो ग्रंथो को पढ़ कर और संतो की वाणी सुन कर ष्ज्ञान प्राप्त करती है और उत्तम बनती है
आठवा लक्षण है अध्यात्म विद्या जिसको प्रभु ने अपना स्वरुप बताया हैजो मनुषय को अविद्या से निकल कर प्रभु की और ले चलती है।
नोवा लक्षण है सच्चे और मीठे बोल बोलना। मन और बुद्धि से जैसा सोचा हो वैसा ही मीठे शब्दों से कह देना और ध्यान रखना की इससे किसी को कोई नुकसान न पहुंचे। सत्य वही है जो ठीक हो, प्रिय हो छल रहित हो और किसी को दुःख पहुंचाने वाला ना हो.
दसवा लक्षण है अपनी बुराई करने वाले के प्रति मन में किसी प्रकार का क्रोध ना करना। अक्रोध और क्षमा में जेहि अंतर है की अक्रोध से कोई क्रिया नहीं होती मनुष्य के साथ जो कुछ भी होता है वो सब सेह लेता है मन में कोई विकार पैदा नहीं होने देता पर इससे हमारी बुराई करने वाले का अपराध क्षमा नहीं होता उसका फल उस ईश्वर के द्वारा किसी न किसी रूप में उसको जरूर मिलता है। ..पर क्षमा करने से उसका अपराध भी क्षमा हो जाता है।
यह सभी लक्षण यदि कोई प्रभु की और ना चलने वाला मनुष्य सुनेगा तो उसे जरूर कठिन लगेंगे पर यदि कोई मनुषय मन कर्म वचन से खुद को प्रभु के शरण में चला जाए तो यह सभी लक्ष्यन खुद ही उसके स्वाभाव में प्रकट हो जायेगे।
तो दोस्तों ग्रंथो ,संतो की वाणी को ठीक से सुनिए और मनन करिये। तभी हमें शरणागति का मार्ग जो श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता के माधयम से हम लोगो तक पहुँचाया का सही अर्थ समझ में आएगा और हम अपने जीवन को शांति से भर लेंगे।