अकेलापन और प्रभु

अकेलापन और प्रभु…..

एक गाँव में एक बूढ़ी माई रहती थी। माई का आगे – पीछे कोई नहीं था इसलिए बूढ़ी माई वेचारी अकेली रहती थी। एक दिन उस गाँव में एक साधु आया। बूढ़ी माई ने साधु का बहुत ही प्रेम पूर्वक आदर सत्कार किया।

जब साधु जाने लगा तो बूढ़ी माई ने कहा – “ महात्मा जी ! आप तो ईश्वर के परम भक्त हैं। कृपा करके मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिये जिससे मेरा अकेलापन दूर हो जाये। अकेले रह – रह करके अब उब चुकी हूँ। ”

साधु ने मुस्कुराते हुए अपनी झोली में से बाल – गोपाल की एक मूर्ति निकाली और बुढ़िया को देते हुए कहा – “ माई ये लो आपका बालक है, इसका अपने बच्चे की तरह प्रेम पूर्वक लालन-पालन करती रहना। बुढ़िया माई बड़े लाड़-प्यार से ठाकुर जी का लालन-पालन करने लगी।

एक दिन गाँव के कुछ शरारती बच्चों ने देखा कि माई मूर्ति को अपने बच्चे की तरह लाड़ कर रही है। नटखट बच्चों को माई से हंसी – मजाक करने की सूझी। उन्होंने माई से कहा – “अरी मैया सुन ! आज गाँव में जंगल से एक भेड़िया घुस आया है, जो छोटे बच्चों को उठाकर ले जाता है और मारकर खा जाता है। तू अपने लाल का ख्याल रखना, कहीं भेड़िया इसे उठाकर ना ले जाये !

बुढ़िया माई ने अपने बाल-गोपाल को उसी समय कुटिया मे विराजमान किया और स्वयं लाठी (छड़ी) लेकर दरवाजे पर पहरा लगाने के लिए बैठ गयी। अपने लाल को भेड़िये से बचाने के लिये बुढ़िया माई भूखी -प्यासी दरवाजे पर पहरा देती रही। पहरा देते-देते एक दिन बीता, फिर दूसरा, तीसरा, चौथा और पाँचवा दिन बीत गया।

बुढ़िया माई पाँच दिन और पाँच रात लगातार, बगैर पलके झपकाये -भेड़िये से अपने बाल-गोपाल की रक्षा के लिये पहरा देती रही। उस भोली-भाली मैया का यह भाव देखकर, ठाकुर जी का ह्रदय प्रेम से भर गया, अब ठाकुर जी को मैया के प्रेम का प्रत्यक्ष रुप से आस्वादन करने की इच्छा हुई ।

भगवान बहुत ही सुंदर रुप धारण कर, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर माई के पास आये। ठाकुर जी के पाँव की आहट पाकर माई ड़र गई कि “कही दुष्ट भेड़िया तो नहीं आ गया, मेरे लाल को उठाने !” माई ने लाठी उठाई और भेड़िये को भगाने के लिये उठ खड़ी हुई ।
तब श्यामसुंदर ने कहा – “मैय्या मैं हूँ, मैं तेरा वही बालक हूँ -जिसकी तुम रक्षा करती हो!”
माई ने कहा – “क्या ? चल हट तेरे जैसे बहुत देखे है, तेरे जैसे सैकड़ों अपने लाल पर न्योछावर कर दूँ, अब ऐसे मत कहियो! चल भाग जा यहा से ।

ठाकुर जी मैय्या के इस भाव और एकनिष्ठता को देखकर बहुत ज्यादा प्रसन्न हो गये। ठाकुर जी मैया से बोले – “अरी मेरी भोली मैया, मैं त्रिलोकीनाथ भगवान हूँ, मुझसे जो चाहे वर मांग ले, मैं तेरी भक्ति से प्रसन्न हूँ।”
बुढ़िया माई ने कहा – “अच्छा आप भगवान हो, मैं आपको सौ-सौ प्रणाम् करती हूँ ! कृपा कर मुझे यह वरदान दीजिये कि मेरे प्राण-प्यारे लाल को भेड़िया न ले जाय।” अब ठाकुर जी और ज्यादा प्रसन्न होते हुए बोले – “तो चल मैया मैं तेरे लाल को और तुझे अपने निज धाम लिए चलता हूँ। वहाँ भेड़िये का कोई भय नहीं है।” इस तरह प्रभु बुढ़िया माई को अपने निज धाम ले गये।

इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपने अन्दर बैठे ईश्वरीय अंश की काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रूपी भेड़ियों से रक्षा करनी चाहिए। जब हम पूरी तरह से तन्मय होकर अपनी पवित्रता और शांति की रक्षा करते हैं तो एक न एक दिन ईश्वर हमें दर्शन जरूर देते हैं। भगवान को पाने का सबसे सरल मार्ग है, भगवान को प्रेम करना… निष्काम प्रेम जैसे बुढ़िया माई ने किया।

दोस्तों हमारा यह जीवन हमे प्रभु की प्राप्ति करने के लिए मिला है। परन्तु हम इस शरीर को अपना मान कर इसके सुख के लिए भाग रहे है पर फिर भी हमे कहीं भी सुख नहीं मिल रहा। यह एक मात्र मनुषय शरीर ही ऐसा है जिसमे हम नए कर्म करके अपने आत्म स्वरुप को जान सकते है। इसलिए हमे भी इस बूढी मैया की तरह प्रभु के किसी रूप को अपना मान कर केवल उससे ही प्रेम करना चाहिए ,ताकि हमे भी उस असीम शक्ति का एहसास हो सके।

 

 

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