लालच या संतुष्टि.
एक बार एक व्यक्ति ने एक संत से पूछा कि ईश्वर तो सर्वमान्य है अर्थात् सुख-दुःख से परे है और हम सब उसके अंश हैं, फिर हम दुःखी या सुखी क्यों हैं।
जब ईश्वर ने स्वयं ही इस संसार को बनाया है तो फिर उसने किसी गरीब को सदैव दुःखी रहने वाला तथा किसी को सदैव प्रसन्न रहने वाला अमीर क्यों बनाया।
दोस्तों ये ऐसे सवाल हम सभी के मन में तब उठते हैं जब हम किसी बात से दुखी या चिंतित होते हैं।
इसका उत्तर वह साधु बड़े करुणा भरे शब्दों में देने लगा। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव के कारण ही हमें ये सब भेद दिखाई देते हैं, हम इस शरीर को ही अपना मानते हैं और इसी में सुखी व दुःखी होते रहते हैं तथा ईश्वर को दोष देते हैं। जिस दिन हमें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाएगा, हम भी ईश्वर की तरह अपने भीतर समानता का अनुभव करेंगे। उदाहरण के लिए, जरा सोचिए, जब हमारा कोई पड़ोसी किसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना के कारण मर जाता है, तो हमें उतना दुख नहीं होता जितना हमें अपने किसी रिश्तेदार के मरने पर होता है, क्योंकि हमने उस इंसान के साथ अपना रिश्ता मान लिया है। इसी प्रकार हम यह भूल गए कि हम आत्मा हैं और इस शरीर को अपना मान लिया, इसलिए इसके साथ मिलने वाले सुख-दुःख को भी हम अपना मान लेते हैं।
दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए संत कहते हैं
अमीर और गरीब यह दो शब्द सांसारिक और आध्यात्मिक दृष्टि से अलग-अलग अर्थ रखते हैं। जिसके पास अधिक धन है, उसे हम अमीर कहते हैं और जिसके पास इन दोनों का अभाव है, उसे हम गरीब कहते हैं। लेकिन आध्यात्मिक पुरुष कहते हैं कि जिसके पास धन नहीं है वह गरीब नहीं है, बल्कि जिसकी प्यास बहुत अधिक है, यानी जिसके पास सब कुछ होते हुए भी और अधिक पाने की इच्छा है वह गरीब है। और जो कम में भी संतुष्ट रहना जानता है वह अमीर है।
संत ने आगे एक कहानी भी सुनाई जिसमें वह कहते हैं कि एक मजदूर और उसकी पत्नी प्रतिदिन जो भी कमाते थे उसे उसी दिन खर्च कर देते थे। उसके पास अगले दिन के लिए कुछ भी नहीं बचता था। इसी प्रकार उनका जीवन सुखपूर्वक चल रहा था। एक दिन मजदूर के घर एक देवी आई। दोनों पति-पत्नी ने उनकी बहुत सेवा की। देवी ने प्रसन्न होकर उसे 7 घड़े दिये जिनमें से 6 तो सोने के सिक्कों से भरे थे और सातवाँ आधा ही था।
दोनों ने सोचा कि क्यों न पहले सातवाँ घड़ा भर लिया जाए जो आधा था। अब वे हर दिन जो भी कमाते, उसमें से कुछ हिस्सा उस बर्तन में डाल देते। ऐसा कई दिनों तक चलता रहा, लेकिन वह बर्तन वैसे ही पड़ा रहा। यह देखकर उनका हृदय बहुत दुःखी हुआ, वे चिन्ता के कारण दुर्बल होने लगे, उनके शरीर का रक्त सूखने लगा, उनके गाल पिचक गये, कमर झुकने लगी, परन्तु फिर भी वे लोभ के कारण उसी सप्तमी को भरने में लगे रहे। मटका।
उसी गांव में एक संत रहते थे और उनका हाल जानते थे। यह सब देखकर उसे उन पर दया आ गई। उसने अपनी मन्त्र शक्ति से देवी को बुलाया और उन सभी बर्तनों को ले जाने को कहा। और ऐसा ही हुआ। जब मजदूर और उसकी पत्नी घर आए तो घर में वे सात बर्तन न देखकर रोने-पीटने लगे। दो-तीन दिन तक वे उदास मन से रहे। और आख़िरकार वे संतुष्ट हो गये और पहले की तरह खुश हो गये।
दोस्तों, कृपया इस कहानी को अपने जीवन से जोड़कर देखें कि क्या आप भी मिली हुई संपत्ति की कद्र नहीं कर रहे हैं ? और कमाने की होड़ में लगे हुए हैं। क्या आप भी इच्छाओं के आधे घड़े को भरने के लिए अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं? सच तो यह है कि हम सब उसी को भरने की कोशिश कर रहे हैं
यदि आज हमे चलाने के लिए साइकिल मिल जाए तो हम मोटर साइकिल की कामना करेंगे , और फिर कार की और उससे आगे ब्रांडेड कार की और इस दौड़ में भागते हुए हम मानसिक और शारीरक तोर पर कमजोर होते चले जाते है कई बीमारियों से ग्रसित हो जाते है।
दोस्तों इन सभी बातों को सुनने के बाद हमें पता चलता है कि लालच एक ऐसी बीमारी है जो अमीर आदमी को गरीब और बहादुर आदमी को कायर बना देती है। इससे मुक्ति का एकमात्र उपाय संतुष्टि है।
जिस व्यक्ति के मन में संतोष जैसे गुण होते हैं वह हमेशा शांत रहता है। एक शांत व्यक्ति ही इस जीवन को सुखपूर्वक जी सकता है।
तो दोस्तों अब यह आपके हाथ में है कि इस जीवन को कैसे जीना है।